मंगलवार, 16 सितंबर 2025

दर्द के रंग

 *दर्द के रंग*


मुख्य पात्र:


आरव – एक संवेदनशील युवा, जिसने बचपन में बहुत संघर्ष देखा।


सना – महत्वाकांक्षी लड़की, जो सपनों और परिवार के बीच उलझी है।


अमन – आरव का दोस्त, जो जीवन को सरल नज़रिए से जीता है।


निधि – सना की बहन, जो आरव की पीड़ा को गहराई से समझती है।


मुख्य विषय:


जीवन के संघर्ष और भावनाओं के अलग-अलग रंग


प्रेम, विश्वासघात और आत्म-खोज


परिवार और समाज की उम्मीदें बनाम अपने सपनों की तलाश


अध्याय विभाजन (10 अध्याय, हर अध्याय ~1000 शब्द)

शुरुआत का दर्द – आरव के बचपन और उसके संघर्ष


सपनों की उड़ान – सना की महत्वाकांक्षाएँ और आरव का संघर्ष


पहली मुलाकात – आरव और सना का मिलना


दोस्ती का रंग – अमन की एंट्री और तिनकों-सा सहारा


अनकहा इज़हार – आरव का सना के लिए गहरा होता लगाव


टूटे सपने – सना का परिवारिक दबाव और फैसले


बेवफाई का रंग – सना का किसी और से रिश्ता


तन्हाई का दर्द – आरव का टूट जाना और अकेलेपन से जूझना


नया मोड़ – निधि का आरव के जीवन में धीरे-धीरे आना


दर्द के रंग – जीवन के सभी दुखों के बाद उम्मीद, स्वीकार्यता और नए रंग


अध्याय 1 : शुरुआत का दर्द

सांझ का समय था। आसमान में सूरज धीरे-धीरे ढल रहा था और उसकी लालिमा छोटे से कस्बे की धूल भरी गलियों पर फैल गई थी। दूर से आती घंटियों की आवाज़ मंदिर के शांत वातावरण को तोड़ रही थी। इसी कस्बे के एक पुराने, जर्जर मकान में आरव अपने छोटे से संसार के साथ रहता था।


आरव की उम्र उस समय सिर्फ़ दस साल की थी, पर आँखों में उम्र से कहीं ज्यादा गहराई और दर्द था। उसके पिता मज़दूरी करते थे, पर शराब की आदत ने उन्हें लगभग नाकारा बना दिया था। माँ दिन-रात मेहनत करती, दूसरों के घरों में बर्तन मांजती और कपड़े धोती, ताकि घर का चूल्हा जल सके। अक्सर शाम को जब पिता घर आते, तो झगड़े और शोर-शराबे का माहौल बन जाता। आरव और उसकी छोटी बहन चुपचाप कोने में बैठकर ये सब देखते और चुपचाप रोते।


आरव बचपन से ही समझदार था। उसने जल्दी ही यह समझ लिया कि जीवन केवल खेल और हंसी का नाम नहीं है, बल्कि यह दर्द और संघर्ष की लंबी यात्रा भी है। जब उसके दोस्त स्कूल के बाद खेलते थे, वह अपनी माँ के साथ बाज़ार चला जाता – सब्ज़ियों की टोकरी उठाने, आटा पीसने की लाइन में खड़े होने या फिर दुकानदार से बचे हुए सिक्के गिनने में मदद करता।


एक दिन, माँ बीमार पड़ गई। बुखार से कांपते हुए भी वह काम पर जाना चाहती थी, लेकिन आरव ने पहली बार ज़िद की –

“माँ, तुम आज कहीं नहीं जाओगी। मैं कर लूंगा सब काम।”


उसकी आँखों में अजीब-सी दृढ़ता थी। माँ ने कमजोर मुस्कान दी, और पहली बार महसूस किया कि उनका बेटा बहुत जल्दी बड़ा हो गया है।


आरव अगले दिन ही स्कूल से सीधे एक दुकान पर चला गया। छोटी-सी मिठाई की दुकान का मालिक उसे पहचानता था, क्योंकि वह अक्सर वहीं बैठकर खाली प्लेटें धो देता और बदले में एक जलेबी पा लेता था। उस दिन उसने मालिक से कहा –

“काका, मुझे काम चाहिए। मैं पढ़ाई के साथ कर लूंगा।”


मालिक ने पहले तो हंस दिया, पर फिर उसकी आँखों में गंभीरता देखकर उसे बर्तन धोने का छोटा-मोटा काम दे दिया। शाम को जब वह घर लौटा तो जेब में पहली बार पाँच रुपये थे। माँ की आँखें भर आईं – दर्द और गर्व दोनों के आँसू साथ में बह निकले।


लेकिन पिता को यह सब अच्छा नहीं लगा। नशे में धुत्त होकर उन्होंने आरव पर चिल्लाना शुरू कर दिया –

“तू अब घर का मर्द बनेगा? मैं अभी ज़िंदा हूँ!”


उस रात घर में फिर झगड़ा हुआ। आरव ने पहली बार सोचा कि शायद उसका घर कभी सुकून की जगह नहीं बनेगा। वह छत पर जाकर आसमान को देर तक देखता रहा। उसे तारों में अजीब-सा सुकून मिलता था। वह सोचता –

“काश! मैं भी एक तारा होता… न कोई झगड़ा, न कोई दर्द।”


धीरे-धीरे दिन बीतते गए। आरव स्कूल में पढ़ाई करता, लेकिन उसके मन में हमेशा जिम्मेदारियों का बोझ रहता। वह क्लास में सबसे तेज़ छात्र था, पर कई बार किताबें खरीदने के पैसे न होने पर वह पुराने, फटे-चिटके पन्नों से ही पढ़ता। अध्यापक उसकी मेहनत को पहचानते थे, लेकिन वे भी जानते थे कि इस बच्चे की आँखों में गहरी पीड़ा छिपी है।


इसी बीच उसकी छोटी बहन, काव्या, अक्सर बीमार रहने लगी। घर का खर्च बढ़ता गया और पिता की शराबखोरी भी। कई बार आरव खुद भूखा रह जाता, लेकिन बहन को दूध पिलाने का इंतज़ाम करता। उसकी मासूमियत और बलिदान देखकर मोहल्ले के लोग भी उसे दुआ देते।


कभी-कभी मोहल्ले की छतों पर खड़े होकर वह बच्चों को खेलते देखता और भीतर से टूटा हुआ महसूस करता। वह चाहता था कि उसकी ज़िंदगी भी उतनी ही आसान होती जितनी उन बच्चों की है। लेकिन फिर वही दृढ़ता उसे संभाल लेती –

“नहीं… मुझे टूटना नहीं है। शायद यही मेरा इम्तिहान है।”


धीरे-धीरे, यह दर्द उसका साथी बन गया। हर चोट, हर आँसू, उसके दिल पर एक नया रंग भर देता था। दर्द का यही पहला रंग था – मासूमियत के खो जाने का रंग।



लेकिन टेक्निकल सीमा के कारण मैं एक ही जवाब में इतना बड़ा कंटेंट (10,000 शब्द) नहीं लिख सकता। इसलिए मैं इसे अध्याय-दर-अध्याय (1000 शब्द लगभग) लिखूँगा और धीरे-धीरे पूरा कर दूँगा।


पहला अध्याय ("शुरुआत का दर्द") मैंने आपको दे दिया है।

अब मैं आपके लिए अध्याय 2 – "सपनों की उड़ान" पूरा लिखता हूँ।


अध्याय 2 : सपनों की उड़ान

आरव का जीवन धीरे-धीरे जिम्मेदारियों और तकलीफ़ों से घिरता जा रहा था। बचपन जैसे किसी तेज़ आंधी ने उससे छीन लिया था। मगर उसके भीतर एक चिंगारी अब भी जिंदा थी—पढ़ाई करने की, अपनी पहचान बनाने की, और उस गरीबी व दुख को पीछे छोड़ देने की।


स्कूल में उसकी पहचान एक होनहार छात्र के रूप में बनने लगी थी। अध्यापक अक्सर उसकी मेहनत की तारीफ़ करते। गणित का कोई सवाल हो या हिंदी की कोई कठिन कविता, आरव हर विषय में चमक दिखाता। मगर असली संघर्ष यह था कि किताबें खरीदने और फीस भरने के लिए उसके पास पैसे नहीं थे।


एक दिन हेडमास्टर ने क्लास में कहा,

“अगले महीने जिला स्तर की प्रतियोगिता है। जो भी विद्यार्थी उसमें सफल होगा, उसे छात्रवृत्ति मिलेगी।”


ये सुनते ही आरव की आँखों में चमक आ गई। यही उसका रास्ता हो सकता था—पढ़ाई जारी रखने और परिवार की हालत बदलने का।


उसने दिन-रात पढ़ाई शुरू कर दी। दुकान पर काम करने के बाद थका हुआ शरीर, मगर आँखों में वही उम्मीद। माँ अक्सर कहती,

“बेटा, ज्यादा मत पढ़, आराम कर ले।”


लेकिन आरव मुस्कुरा देता—

“माँ, यही तो रास्ता है, हमें इस अंधेरे से बाहर निकालने का।”


मोहल्ले के लोग भी उसे मेहनत करता देख हैरान रहते। बच्चे जब खेलते, वह किताबों में डूबा रहता। कई बार मोहल्ले की सना और निधि—दो बहनें जो पास के बड़े घर में रहती थीं—उससे बातें करने आतीं।


सना पढ़ाई में बहुत तेज़ थी और उसकी ख्वाहिश थी कि वह डॉक्टर बने। उसका घर अमीर था, मगर उस पर अपने परिवार की अपेक्षाओं का दबाव भी था। आरव जब उससे बात करता, तो उसे पहली बार लगता कि कोई उसे समझ रहा है।


एक दिन सना ने कहा,

“आरव, तुम्हारी आँखों में अजीब-सी गहराई है। जैसे तुमने बहुत कुछ झेला हो।”


आरव हल्की मुस्कान के साथ बोला,

“शायद दर्द इंसान को जल्दी बड़ा कर देता है।”


यह सुनकर सना चुप हो गई। वह उसकी बातों में सच्चाई महसूस करती थी।


जिला प्रतियोगिता का दिन आया। आरव ने पूरी तैयारी के साथ परीक्षा दी। हॉल में बैठे बड़े-बड़े स्कूलों के बच्चे महंगे कपड़ों और नई किताबों के साथ आए थे, जबकि आरव फटी कॉपी और उधारी की पेन लेकर बैठा था। मगर आत्मविश्वास उसके चेहरे पर साफ झलक रहा था।


कुछ हफ्तों बाद नतीजे आए—आरव ने पहला स्थान हासिल किया था। पूरे कस्बे में उसका नाम हुआ। उसे छात्रवृत्ति मिली और किताबें खरीदने के लिए पैसे भी। माँ की आँखों में खुशी के आँसू थे, और मोहल्ले के लोग उसे बधाई देने लगे।


उस दिन आरव ने महसूस किया कि सपनों के पंख दर्द से भी मजबूत हो सकते हैं।


लेकिन असली चुनौती अभी बाकी थी। जिंदगी ने उसके लिए और भी इम्तिहान रखे थे।


 3 – "पहली मुलाकात" लिखते हैं। यह हिस्सा कहानी में मोड़ लाएगा और भावनाओं को और गहराई देगा।


अध्याय 3 : पहली मुलाकात

आरव की मेहनत और संघर्ष की चर्चा अब स्कूल से बाहर भी होने लगी थी। मोहल्ले के लोग उसे उदाहरण मानने लगे—“देखो, गरीबी में भी कैसे पढ़ता है।” लेकिन इस तारीफ़ के बीच कहीं एक गहरी तन्हाई थी, जिसे वह सिर्फ अपने दिल में महसूस करता।


इन्हीं दिनों एक नया शैक्षणिक शिविर कस्बे में लगा, जिसमें अलग-अलग स्कूलों के बच्चों को बुलाया गया। वहां पढ़ाई, प्रतियोगिताएं और सांस्कृतिक कार्यक्रम सब होने थे। आरव भी चुना गया। यह उसके लिए पहली बार था कि वह अपने छोटे से दायरे से बाहर निकल रहा था।


शिविर के पहले दिन हॉल में सैकड़ों बच्चे बैठे थे। सबके पास महंगी ड्रेसें और नए बैग थे, जबकि आरव अपनी पुरानी यूनिफॉर्म और साधारण थैले के साथ आया था। वह थोड़ा झिझका, पर भीतर की ताक़त ने उसे संभाल लिया।


कार्यक्रम शुरू हुआ। बच्चों को अलग-अलग समूहों में बांटा गया। आरव के समूह में वही दो बहनें भी थीं—सना और निधि, जिन्हें वह अपने मोहल्ले में जानता था। मगर यहां माहौल अलग था।


सना का आत्मविश्वास लाजवाब था। वह सबके सामने बोलती, सवालों के जवाब देती और सबको प्रभावित कर रही थी। निधि थोड़ी शांत थी, मगर उसकी आँखों में अपनापन झलकता था।


एक गतिविधि के दौरान सभी बच्चों से कहा गया—

“आपको अपने जीवन की सबसे कठिन घड़ी के बारे में बोलना है।”


ज्यादातर बच्चों ने छोटी-छोटी बातें बताईं—किसी को बुखार आया, किसी का खिलौना खो गया, किसी की किताब फट गई। लेकिन जब आरव की बारी आई, तो उसने गहरी सांस ली और कहा—


“मेरी सबसे कठिन घड़ी वह थी, जब माँ बीमार थीं और घर में दवा खरीदने तक के पैसे नहीं थे। उस रात मैंने भगवान से सिर्फ यही प्रार्थना की थी कि मेरी माँ बच जाएं। तब मैंने तय किया कि मैं खुद मेहनत करूंगा और किसी पर निर्भर नहीं रहूंगा।”


हॉल में सन्नाटा छा गया। सब बच्चे उसे घूरने लगे। कई के चेहरे पर सहानुभूति थी, तो कुछ के लिए यह कहानी अजनबी और अकल्पनीय थी। मगर सना की आँखों में अलग चमक थी। उसने पहली बार आरव को गहराई से महसूस किया।


शाम को कैंप से लौटते वक्त सना उसके पास आई और बोली,

“तुम्हारी बातें सुनकर लगा कि असली हिम्मत कैसी होती है। हम सोचते हैं कि हमारे दुख बड़े हैं, लेकिन तुम्हें देखकर लगता है कि इंसान सब सहकर भी मुस्कुरा सकता है।”


आरव थोड़ी देर चुप रहा। फिर धीमे से बोला,

“दर्द हमें तोड़ता भी है और गढ़ता भी। फर्क बस इतना है कि हम उसे किस तरह देखते हैं।”


यह उनकी पहली सच्ची बातचीत थी। सना के दिल में कहीं एक नया एहसास पनपने लगा। निधि पास खड़ी सब देख रही थी, उसके होंठों पर हल्की मुस्कान थी—जैसे वह पहले से जानती हो कि यह रिश्ता आगे जाकर खास होने वाला है।


उस रात आरव देर तक सो नहीं सका। वह छत पर लेटा आसमान देख रहा था। तारे वैसे ही चमक रहे थे, मगर आज उसका दिल अलग तरह से धड़क रहा था। उसने खुद से सवाल किया—

“क्या यही वो रंग है, जिसे लोग दोस्ती या शायद मोहब्बत कहते हैं?”






अध्याय 4 : दोस्ती का रंग

कैंप के बाद आरव का आत्मविश्वास और भी बढ़ गया था। उसने महसूस किया कि उसकी मेहनत रंग ला रही है। लेकिन फिर भी उसके जीवन में खालीपन था—एक ऐसा खालीपन जिसे सिर्फ सच्ची दोस्ती ही भर सकती थी।


इसी दौरान उसकी मुलाकात अमन से हुई।

अमन बिल्कुल अलग स्वभाव का लड़का था। हंसमुख, बेफिक्र और ज़िंदगी को हल्के अंदाज़ में जीने वाला। उसका परिवार ठीक-ठाक था, लेकिन उसने कभी घमंड नहीं किया। मोहल्ले की गली में जब उसने आरव को किताबों के साथ चलते देखा, तो मज़ाक में बोला—


“भाई, तू हमेशा किताबों में ही डूबा रहता है। ज़िंदगी का मज़ा लेना भी ज़रूरी है।”


आरव ने हल्की मुस्कान दी,

“मेरे लिए किताबें ही मज़ा हैं, अमन।”


अमन को उसका ये जवाब बहुत पसंद आया। धीरे-धीरे दोनों में दोस्ती हो गई। अमन ने पहली बार आरव को हंसते देखा, वरना वह हमेशा गंभीर और चुप रहता था।


अब स्कूल के बाद दोनों साथ बैठते। अमन अपनी मज़ेदार कहानियों से माहौल हल्का कर देता और आरव गंभीर चर्चाओं में उसे खींच लेता। दोनों का रिश्ता एकदम संतुलित हो गया—जैसे दर्द और हंसी का मेल।


एक दिन, मोहल्ले की गली में सना और निधि भी बैठी थीं। अमन ने धीरे से आरव के कान में कहा,

“भाई, वो लड़की तुझे बहुत ध्यान से देख रही है।”


आरव झेंप गया,

“कौन?”


“वही, जो हमेशा किताबों की बातें करती है… सना।”


आरव ने बात टालने की कोशिश की,

“नहीं-नहीं, तुम गलत समझ रहे हो।”


अमन हंसते हुए बोला,

“अरे, प्यार की खुशबू तो दूर से भी पहचान लेता हूं। तू चाहे छुपा ले, लेकिन आंखें सब बता देती हैं।”


आरव ने हंसी दबाई, मगर दिल की धड़कन तेज़ हो गई। सच यह था कि सना की मौजूदगी अब उसे अलग महसूस कराती थी।


समय बीतता गया। चारों—आरव, अमन, सना और निधि—अक्सर एक साथ बैठते। किताबें, भविष्य, सपने और कभी-कभी हंसी-मज़ाक। धीरे-धीरे यह दोस्ती कस्बे की गलियों से निकलकर उनके दिलों में जगह बनाने लगी।


एक बार शाम को जब चारों मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे थे, अमन ने कहा,

“हम सबके रंग अलग-अलग हैं। कोई मेहनत का, कोई सपनों का, कोई हंसी का, कोई दर्द का। लेकिन जब ये सब मिलते हैं, तभी ज़िंदगी खूबसूरत बनती है।”


सना ने आरव की तरफ देखा और मुस्कुराई। उसकी मुस्कान में एक अनकही बात थी। निधि ने चुपचाप यह सब नोट किया, लेकिन उसने कुछ कहा नहीं।


उस रात आरव ने डायरी में लिखा—

“शायद यही है दोस्ती का असली रंग—जहां दर्द भी हल्का लगता है और सपने भी सच्चे लगते हैं।”


अध्याय 5 : अनकहा इज़हार

समय यूँ ही धीरे-धीरे बहता रहा। पढ़ाई, छोटे-छोटे सपने, और दोस्तों का साथ—आरव की ज़िंदगी जैसे किसी नए रंग में रंगने लगी थी। मगर दिल के भीतर एक ऐसी टीस भी थी, जिसे वह किसी से कह नहीं पा रहा था।


वह टीस थी सना के लिए उसकी भावनाएँ।


आरव जानता था कि सना उससे अलग दुनिया से आती है—अमीर घर की बेटी, सुंदर, महत्वाकांक्षी, और आत्मविश्वासी। जबकि वह खुद संघर्षों का प्रतीक था। उसके पास न पैसा था, न सुकून भरा घर, न कोई उज्ज्वल भविष्य की गारंटी।


लेकिन दिल की बातें तर्क से कहां मानती हैं?

जब भी सना हंसती, आरव को लगता कि उसकी उदास ज़िंदगी में कोई रोशनी आ गई हो। जब सना उसे सवाल पूछती या उसकी बातों को गौर से सुनती, तो वह खुद को किसी मायने में क़ीमती महसूस करता।


एक शाम चारों दोस्त मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे थे। आसमान में हल्की धुंध थी और हवा में ठंडक। अमन हमेशा की तरह मज़ाक कर रहा था, निधि मुस्कुरा रही थी, और सना किताब के पन्ने पलट रही थी।


अचानक अमन ने कहा,

“चलो, आज एक खेल खेलते हैं—‘दिल की बात’। हर कोई अपने मन की एक ऐसी बात बताएगा, जो उसने कभी किसी से नहीं कही।”


सब हंस पड़े। निधि ने कहा,

“ये तो खतरनाक खेल है।”


अमन बोला,

“अरे, बस छोटी-छोटी बातें होंगी। कोई राज़ खोलने की ज़रूरत नहीं।”


निधि ने मज़ाक में कहा कि वह बचपन से गुप्त रूप से कविताएँ लिखती है। सबने ताली बजाई। सना ने कहा कि उसे अकेले में गाना गाने का शौक़ है, पर उसने कभी किसी के सामने नहीं गाया।


फिर अमन ने शरारती अंदाज़ में आरव की तरफ देखा,

“अब तेरी बारी, भाई।”


आरव का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। मन तो कह रहा था कि वह सबके सामने बोल दे—“हाँ, मैं सना को पसंद करता हूँ।” मगर होठों से कुछ और ही निकला।


“मेरे मन की बात ये है कि… मैं हमेशा चाहता था कि मेरे पास भी ऐसा घर हो, जहां झगड़े न हों, जहां माँ-पिता खुश हों। बस यही मेरी सबसे बड़ी चाहत है।”


वह चुप हो गया। सबने गंभीरता से उसकी बात सुनी। मगर उसके दिल में तूफ़ान अब भी उमड़ रहा था।


उस रात आरव ने बहुत देर तक नींद नहीं ली। वह डायरी के पन्ने पर लिखता रहा—


“काश! मैं सना को बता पाता कि जब वह पास होती है तो मेरी दुनिया बदल जाती है। पर क्या मेरे जैसे इंसान को हक़ है किसी से ऐसा कहने का? क्या मेरी गरीबी और दर्द उसके रास्ते में आकर उसे बोझ नहीं लगेंगे? शायद चुप रहना ही बेहतर है…”


दूसरी ओर, सना भी आरव की ओर खिंचाव महसूस करने लगी थी। उसे उसके शब्दों में सच्चाई दिखती थी, उसकी आँखों में गहराई। लेकिन वह भी खुद से सवाल करती—


“क्या ये सिर्फ दोस्ती है, या इससे ज़्यादा कुछ?”


निधि यह सब चुपचाप देखती रही। उसकी समझ सना से कहीं ज़्यादा थी। उसे लग रहा था कि आरव का दिल सना की ओर खिंच रहा है। मगर उसने कुछ कहा नहीं। शायद वक्त ही सच्चाई सामने लाएगा।


यह अनकहा इज़हार, यह खामोश मोहब्बत… दोनों के दिलों को जोड़ रही थी, मगर लफ़्ज़ों में आने से डर रही थी।




अध्याय 6 : टूटे सपने

समय बीतते-बीतते आरव और सना की दोस्ती गहरी हो चुकी थी। दोनों एक-दूसरे की बातों को समझते, सपनों पर चर्चा करते और कभी-कभी घंटों साथ बैठकर चुप रहते—जैसे खामोशी भी उनके बीच एक भाषा बन गई हो।


लेकिन सना का घर अब उसकी ज़िंदगी में दबाव डालने लगा था। उसके पिता एक सख़्त व्यापारी थे। उन्होंने हमेशा सना से यही उम्मीद की थी कि वह उनकी प्रतिष्ठा को और ऊँचाई पर ले जाएगी। डॉक्टर बनने का सपना उन्होंने ही उसके सामने रखा था।


एक रात, जब सना पढ़ाई कर रही थी, उसके पिता कमरे में आए और कहा—

“सना, तुम्हारे लिए रिश्ता आया है। लड़का बड़ा घराने से है, पढ़ाई भी विदेश में की है। हम सोचते हैं कि ये रिश्ता तुम्हारे लिए सही रहेगा।”


सना जैसे सन्न रह गई। उसने हिम्मत करके कहा—

“पापा, लेकिन मैं अभी पढ़ाई करना चाहती हूँ। मेरी ख्वाहिश है कि मैं डॉक्टर बनूँ।”


पिता की आवाज़ कठोर थी—

“ख्वाहिशें ज़िंदगी भर पूरी नहीं होतीं। सही समय पर सही फैसले लेना ज़रूरी है।”


सना का दिल टूट गया। वह पूरी रात रोती रही।


अगले दिन जब वह आरव से मिली, तो उसकी आँखों में नींद और दर्द साफ झलक रहा था। आरव ने पूछा,

“क्या हुआ? तुम इतनी उदास क्यों हो?”


सना ने सिर झुका लिया,

“कुछ नहीं… बस घर की बातें हैं।”


आरव ने चाहा कि वह उसका हाथ पकड़कर कहे—“तुम्हें डरने की ज़रूरत नहीं, मैं हूँ तुम्हारे साथ।” लेकिन उसके होंठ सील गए। उसकी गरीबी और हालात उसे रोक रहे थे। वह सोच रहा था—

“मैं खुद टूटी ज़िंदगी का हिस्सा हूँ। क्या मैं उसे सहारा दे पाऊँगा?”


कुछ हफ्तों बाद खबर फैली कि सना की सगाई तय हो गई है। मोहल्ले में लोग बातें करने लगे। आरव ने जब यह सुना तो जैसे उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई।


उस रात उसने अपनी डायरी में लिखा—

“मैंने सोचा था कि शायद दर्द के बीच भी सपने सच हो सकते हैं। मगर लगता है, सपने सिर्फ अमीरों के होते हैं। गरीबों के हिस्से में तो सिर्फ टूटे सपने आते हैं।”


सगाई के दिन मोहल्ला रोशनी से सज गया। सना सुंदर लिबास में मुस्कुरा रही थी, मगर उसकी आँखों में दर्द छिपा था। आरव दूर खड़ा सब देख रहा था। अमन ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा—

“भाई, तुझे हिम्मत रखनी होगी। ज़िंदगी सिर्फ एक इंसान पर नहीं रुकती।”


लेकिन आरव की आँखों में आँसू भर आए। उसने मन ही मन सोचा—

“क्या यही है मेरा नसीब? जो भी चाहता हूँ, वही मुझसे छिन जाता है।”


उस पल उसे लगा जैसे उसकी दुनिया बिखर गई हो।


उस रात आरव अकेले छत पर बैठा आसमान देख रहा था। तारे वैसे ही चमक रहे थे, मगर उसके दिल में अंधेरा भर चुका था। उसने महसूस किया—

यह दर्द का नया रंग था—टूटे सपनों का रंग।


अध्याय 7 : बेवफाई का रंग

सना की सगाई की खबर से आरव का दिल वैसे ही टूटा हुआ था। लेकिन उसने फिर भी खुद को समझाने की कोशिश की—

“शायद यही किस्मत है। अगर वह खुश है तो मुझे भी खुश होना चाहिए।”


मगर किस्मत ने जैसे उसे और भी परखने का निश्चय कर लिया था।


सगाई के बाद मोहल्ले में धीरे-धीरे चर्चाएँ फैलने लगीं। लोग कह रहे थे कि सना का रिश्ता एक बड़े शहर के इंजीनियर से हुआ है, जो विदेश में नौकरी करता है। उसके घरवाले खुश थे कि उन्हें ऊँची हैसियत वाला दामाद मिल रहा है।


एक शाम आरव ने दूर से देखा कि सना अपने मंगेतर के साथ गली में खड़ी बातें कर रही है। उसके चेहरे पर मुस्कान थी—वही मुस्कान जो कभी आरव के लिए खास हुआ करती थी।


आरव का दिल बैठ गया। उसने मन ही मन कहा—

“क्या ये वही सना है, जो कभी मेरी आँखों में गहराई ढूँढ़ती थी? क्या सब बस एक धोखा था? या फिर मैं ही अपनी जगह समझ नहीं पाया?”


उस रात अमन उससे मिलने आया।

“भाई, तू इतना चुप क्यों है? सब नोटिस कर रहे हैं।”


आरव ने गहरी सांस ली,

“पता है अमन, दर्द तब और ज्यादा बढ़ जाता है जब वो इंसान जिसे हम सबसे ज्यादा सच्चा समझते हैं, वही हमारी नज़रों से गिर जाता है।”


अमन ने समझाने की कोशिश की—

“शायद उसके हालात होंगे। हर कोई अपनी मजबूरियों में बंधा होता है।”


आरव ने सिर हिलाया,

“नहीं… अगर चाहत सच्ची होती तो मजबूरियां भी टूट जातीं।”


धीरे-धीरे आरव ने सना से दूरी बनानी शुरू कर दी। लेकिन भीतर ही भीतर उसका दिल हर रोज़ खून के आँसू रोता। जब भी वह सना को सजधजकर अपने मंगेतर से बात करते देखता, तो उसे लगता जैसे उसकी आत्मा को कोई चीर रहा हो।


सना ने भी नोटिस किया कि आरव अब उससे बातें नहीं करता, न ही उसकी तरफ़ देखता है। वह समझ गई थी कि आरव के दिल में क्या है। मगर वह खुद भी मजबूर थी।


एक दिन वह आरव के पास आई और बोली—

“तुम मुझसे दूर क्यों हो गए हो? हम अब भी दोस्त तो रह सकते हैं।”


आरव ने उसकी आँखों में देखा और कहा,

“दोस्ती? जब दिल टूट चुका हो, तो दोस्ती की जगह कहाँ बचती है? तुमने मेरी दुनिया ही बदल दी, सना। अब तुमसे नज़रे मिलाना भी मुश्किल है।”


सना चुप हो गई। उसके होंठ कांप रहे थे, आँखें भीग चुकी थीं। मगर वह कुछ कह नहीं सकी।


उस रात आरव ने महसूस किया कि बेवफाई का रंग सबसे गहरा और सबसे कड़वा होता है। यह सिर्फ दिल नहीं तोड़ता, बल्कि इंसान की आत्मा को भी खोखला कर देता है।


उसने अपनी डायरी में लिखा—

“शायद अब मेरी ज़िंदगी में मोहब्बत का कोई मतलब नहीं। अब मैं सिर्फ अपने दर्द को ही साथी बनाऊंगा।”


अध्याय 8 : तन्हाई का दर्द

सना की सगाई के बाद आरव की दुनिया जैसे थम सी गई थी। भीड़भाड़ वाले शहर की गलियों में चलते हुए भी उसे सन्नाटा ही महसूस होता। हर जगह उसे सना की यादें पीछा करतीं—कॉलेज की लाइब्रेरी, चाय का छोटा-सा ढाबा, गली का कोना जहाँ दोनों घंटों बातें किया करते थे।


मगर अब सब कुछ बदल चुका था।


आरव ने खुद को दोस्तों से भी दूर करना शुरू कर दिया।

अमन कई बार उसे घुमाने-फिराने बुलाता, मगर आरव बहाने बनाकर मना कर देता।

उसकी किताबों में अब अक्षरों से ज़्यादा आँसू गिरने लगे थे।


रात को वह छत पर लेटकर आसमान को घूरता और सोचता—

“तन्हाई इतनी भारी क्यों होती है? क्या सचमुच मोहब्बत सिर्फ दर्द देने के लिए ही आती है?”


एक दिन अमन ने मजबूर होकर कहा—

“भाई, तेरा ये हाल देखकर मेरा दिल टूट रहा है। तू खुद को इस तरह बर्बाद क्यों कर रहा है?”


आरव ने फीकी मुस्कान दी,

“अमन, तन्हाई ही अब मेरी दोस्त है। लोग पास होते हैं, फिर भी कोई सचमुच अपना नहीं होता। कम से कम तन्हाई मुझे धोखा नहीं देती।”


अमन उसकी आँखों में देखता रहा, मगर उसके पास कोई जवाब नहीं था।


धीरे-धीरे आरव का मन पढ़ाई से भी हटने लगा। क्लास में बैठा रहता, मगर ध्यान कहीं और होता। प्रोफेसर पढ़ाते रहते और उसके दिमाग़ में सिर्फ वही सवाल घूमता—

“क्यों मेरी मोहब्बत अधूरी रह गई? क्यों मैंने ही हर बार खोया?”


उसने कविताएँ लिखना शुरू कर दिया। उसकी डायरी अब दर्द की स्याही से भर चुकी थी।


"तन्हाई की रातों में

जब कोई आवाज़ नहीं होती,

सिर्फ यादें गूंजती हैं,

और दिल पूछता है—

क्या मैं कभी किसी का था?"


समय बीत रहा था, मगर तन्हाई उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी।

लोग बाहर से उसे सामान्य देखते, मगर उसके भीतर एक ऐसा तूफ़ान चल रहा था, जिसे कोई समझ नहीं सकता था।


उसने महसूस किया कि तन्हाई का दर्द कभी-कभी सबसे बड़ा ज़हर बन जाता है। यह इंसान को धीरे-धीरे भीतर से खत्म कर देता है, बिना किसी आवाज़ के।


अध्याय 9 : नई शुरुआत की तलाश

कभी-कभी इंसान की ज़िंदगी में एक समय ऐसा आता है, जब उसे लगता है कि सब कुछ खत्म हो चुका है। आरव भी उसी मोड़ पर था। मगर कहते हैं कि ज़िंदगी हमेशा अंधेरे में नहीं रुकती, कहीं न कहीं एक छोटी-सी रोशनी रास्ता दिखा ही देती है।


आरव ने तय किया कि अब वह अपनी तन्हाई में डूबकर खुद को बर्बाद नहीं करेगा।

उसने सोचा—

“अगर मोहब्बत ने मुझे दर्द दिया है, तो शायद मेहनत मुझे जीने का मकसद दे सकती है।”


उसने अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना शुरू किया।

किताबें, लाइब्रेरी और कॉपी-पेन उसके नए साथी बन गए।

कभी जो आँसू डायरी के पन्नों पर गिरते थे, अब वही आँसू सपनों की आग में बदलने लगे।


अमन ने भी राहत की सांस ली,

“यार, तू फिर से वही पुराना आरव बन रहा है। यही तो चाहिए था!”


आरव ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,

“शायद अब मेरी मंज़िल मोहब्बत नहीं, बल्कि कुछ और है। मुझे अपनी पहचान खुद बनानी होगी।”


इसी दौरान कॉलेज में एक सेमिनार हुआ। वहाँ कई नए चेहरे आए।

यही वह जगह थी, जहाँ आरव की मुलाकात आस्था से हुई—

एक साधारण मगर आत्मविश्वासी लड़की, जो समाजसेवा से जुड़ी थी।


आस्था का बोलने का अंदाज़ दिल को छू लेने वाला था।

उसकी बातें सुनकर आरव ने पहली बार महसूस किया कि ज़िंदगी सिर्फ खोने का नाम नहीं है, बल्कि देने का भी नाम है।


धीरे-धीरे आरव और आस्था की बातचीत शुरू हुई।

आस्था उससे कहती,

“आरव, कभी-कभी हमें अपने दर्द को दूसरों की मदद में बदलना चाहिए। जब हम किसी की ज़िंदगी में रोशनी भरते हैं, तो हमारे अंदर का अंधेरा भी कम हो जाता है।”


ये बातें आरव को गहराई से छू जातीं।

उसे लगा जैसे किसी ने उसकी तन्हाई के सन्नाटे को शब्दों से तोड़ दिया हो।


आरव ने अपनी डायरी में लिखा—

“शायद ज़िंदगी का असली रंग मोहब्बत या दर्द नहीं है…

बल्कि नई शुरुआत की तलाश है।

जब हम टूटते हैं, तभी हमें खुद को नए सिरे से बनाने का हौसला मिलता है।”




अध्याय 10 : आस्था का असर

आस्था से मिलने के बाद आरव की ज़िंदगी में एक अजीब-सी रोशनी आने लगी थी।

वह कोई साधारण लड़की नहीं थी—उसकी सोच, उसकी नज़र और उसकी बातें इंसान को भीतर तक बदल देने वाली थीं।


आस्था अकसर कहती,

“आरव, अगर तुम्हें दर्द मिला है, तो उसे बोझ मत समझो। दर्द इंसान को मजबूत बनाता है। यह हमें सिखाता है कि कौन-सा रास्ता सही है और कौन-सा गलत।”


ये शब्द आरव के भीतर गूंजने लगे।

वह सोचता, क्या सचमुच मेरा दर्द किसी नए मकसद की नींव बन सकता है?


धीरे-धीरे दोनों की मुलाकातें बढ़ने लगीं।

कभी कैंपस में, कभी लाइब्रेरी में, तो कभी समाजसेवा से जुड़े कार्यक्रमों में।

आस्था ने उसे ऐसे कामों में शामिल किया, जहाँ गरीब बच्चों को पढ़ाया जाता, बुज़ुर्गों की मदद की जाती और जरूरतमंदों के लिए चंदा जुटाया जाता।


इन कामों में लगकर आरव ने पहली बार महसूस किया कि तन्हाई से बाहर आने का रास्ता सिर्फ मोहब्बत नहीं, बल्कि सेवा भी हो सकता है।


एक शाम, जब दोनों गरीब बच्चों को पढ़ाकर लौट रहे थे, आस्था ने उससे कहा—

“तुम जानते हो आरव, इंसान की असली पहचान यह नहीं होती कि उसने कितना पाया है… बल्कि यह होती है कि उसने कितना बांटा है।”


आरव उसकी आँखों में देखते हुए बोला,

“तुम्हारी बातें मुझे जीना सिखा रही हैं। पहले मैं सोचता था कि मेरा दर्द ही मेरी किस्मत है। मगर अब लगता है कि मैं इस दर्द को ताकत बना सकता हूँ।”


आस्था की उपस्थिति ने आरव की दुनिया को धीरे-धीरे बदल दिया।

वह अब पहले जैसा खोया हुआ लड़का नहीं रहा।

उसकी आँखों में एक नया सपना चमकने लगा—

खुद के लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए जीने का सपना।


आरव ने अपनी डायरी में लिखा—

“आस्था… तुम्हारा नाम ही तुम्हारी पहचान है।

तुमने मुझे यकीन दिलाया है कि ज़िंदगी अभी खत्म नहीं हुई।

तुम मेरे दर्द पर मरहम जैसी हो,

और शायद मेरी नई शुरुआत की वजह भी।”


अध्याय 11 : दिल का रिश्ता

आरव और आस्था की मुलाकातें अब नियमित होने लगी थीं।

दोनों का साथ अब सिर्फ काम या पढ़ाई तक सीमित नहीं था, बल्कि एक अनकहा रिश्ता उनकी रूहों को जोड़ने लगा था।


कभी वे गरीब बच्चों को पढ़ाने जाते, तो कभी किसी सामाजिक कार्यक्रम में एक साथ काम करते।

आरव ने महसूस किया कि जब आस्था उसके पास होती है, तो उसका दिल सुकून से भर जाता है।

वह अब अकेला महसूस नहीं करता था।


एक दिन लाइब्रेरी में किताब पढ़ते-पढ़ते आस्था ने कहा—

“आरव, तुम्हें पता है… मैं तुम्हें देखकर हैरान होती हूँ। इतना दर्द झेलने के बाद भी तुम्हारे अंदर अब भी इंसानियत जिंदा है। तुमने हार मानने के बजाय खुद को नया बनाया है।”


आरव मुस्कुराया,

“शायद यह सब तुम्हारी वजह से है। अगर तुम मेरी ज़िंदगी में नहीं आतीं, तो मैं शायद तन्हाई में ही डूबकर खत्म हो जाता।”


आस्था चुप रही। उसकी आँखों में हल्की नमी थी।

वह समझ गई थी कि आरव की भावनाएँ अब दोस्ती से आगे बढ़ चुकी हैं।


धीरे-धीरे दोनों एक-दूसरे के राज़ समझने लगे।

आरव उसे अपने अतीत के दर्द सुनाता, तो आस्था अपने संघर्षों की कहानियाँ बताती।

उनके बीच एक ऐसा दिल का रिश्ता बनने लगा, जो शब्दों में बयान करना आसान नहीं था।


एक शाम, जब बारिश हो रही थी, दोनों एक छतरी के नीचे खड़े थे।

आरव ने धीरे से कहा—

“आस्था, तुमने मुझे ज़िंदगी जीना सिखाया है। मुझे नहीं पता कि यह मोहब्बत है या कुछ और, मगर इतना जानता हूँ कि तुम्हारे बिना मेरी दुनिया अधूरी लगती है।”


आस्था ने उसकी ओर देखा। उसके होंठ कांप रहे थे, मगर आँखों में सच्चाई थी।

उसने कहा—

“आरव… कभी-कभी दिल के रिश्ते नाम नहीं माँगते। अगर तुम्हारा दर्द तुम्हें मेरे पास लाया है, तो शायद मेरी आस्था तुम्हें हमेशा संभाले रखेगी।”


उस पल दोनों के बीच एक खामोश समझौता हो गया—

वे अब सिर्फ दोस्त नहीं रहे, बल्कि दिल से एक-दूसरे के हो चुके थे।


आरव ने अपनी डायरी में लिखा—

“सना ने मुझे दर्द दिया था,

मगर आस्था ने उस दर्द को दवा बना दिया।

शायद यही दिल का रिश्ता होता है—

जहाँ मोहब्बत लफ़्ज़ों से नहीं, एहसासों से जताई जाती है।”



अध्याय 12 : किस्मत की आहट

आरव और आस्था का रिश्ता अब गहराई तक पहुँच चुका था।

उनकी आँखों में एक-दूसरे के लिए विश्वास, अपनापन और अनकही मोहब्बत साफ झलकती थी।

मगर किस्मत हमेशा इंसान को सीधी राह नहीं देती।


एक दिन कॉलेज में खबर फैली कि आस्था का परिवार शहर छोड़कर दिल्ली जाने वाला है।

उसके पिता का ट्रांसफर हो गया था, और अब आस्था को भी पढ़ाई और काम वहीं से जारी करना होगा।


यह खबर सुनकर आरव के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।

उसके दिल ने कहा—

“क्या मैं फिर से खोने वाला हूँ? पहले सना, और अब आस्था?”


शाम को जब दोनों मिले, तो आरव की आँखों में बेचैनी साफ दिख रही थी।

उसने धीमी आवाज़ में पूछा,

“आस्था… क्या तुम सच में चली जाओगी?”


आस्था ने गहरी सांस ली,

“हाँ आरव, पापा की नौकरी की वजह से यह ज़रूरी है। लेकिन… इसका मतलब यह नहीं कि मैं तुम्हें भूल जाऊँगी।”


आरव ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा,

“मगर मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूँगा? तुम ही तो मेरी नई शुरुआत हो।”


आस्था ने उसके हाथों को थाम लिया,

“कभी-कभी दूरी भी रिश्तों की गहराई को परखती है। अगर हमारा रिश्ता सच्चा है, तो यह दूरी हमें तोड़ नहीं पाएगी।”


आरव चुप हो गया।

उसके दिल में डर था कि कहीं किस्मत फिर से उसे अकेला न कर दे।

वह जानता था कि मोहब्बत सिर्फ साथ रहने का नाम नहीं है, बल्कि भरोसे का नाम भी है।

लेकिन उसके ज़ख्म इतने गहरे थे कि वह इस परीक्षा के लिए तैयार नहीं था।


उस रात उसने अपनी डायरी में लिखा—

“किस्मत की आहट फिर से दस्तक दे रही है।

न जाने क्यों, मुझे लगता है कि मोहब्बत मेरी ज़िंदगी में कभी पूरी नहीं होगी।

क्या दर्द ही मेरी सच्ची किस्मत है?”




अध्याय 13 : जुदाई के साये

आस्था के दिल्ली जाने का दिन नज़दीक आ रहा था।

आरव के लिए हर गुजरता पल भारी होता जा रहा था।

वह चाहता था कि वक्त थम जाए, ताकि आस्था हमेशा उसके साथ रहे।


जिस दिन आस्था रवाना होने वाली थी, स्टेशन पर भीड़ लगी हुई थी।

आरव चुपचाप उसके पास खड़ा था।

उसके दिल में हजारों बातें थीं, मगर होंठों पर सिर्फ खामोशी थी।


आस्था ने मुस्कुराकर कहा,

“आरव, तुम्हें उदास देखकर अच्छा नहीं लगता। याद रखना, दूरी सिर्फ जिस्म की होती है, दिल की नहीं।”


आरव की आँखें भीग गईं।

उसने कांपती आवाज़ में कहा,

“आस्था, मुझे डर है… कहीं यह जुदाई हमें तोड़ न दे।”


आस्था ने उसके हाथों को कसकर पकड़ा और बोली,

“नहीं आरव। हमारा रिश्ता दर्द से जन्मा है, और यही दर्द इसे मजबूत बनाएगा। मुझ पर भरोसा रखो।”


ट्रेन चल पड़ी।

आस्था खिड़की से हाथ हिलाती रही और आरव वहीं खड़ा उसे दूर होते देखता रहा।

धीरे-धीरे ट्रेन धुंध में गायब हो गई।


उस पल आरव ने महसूस किया कि जुदाई का साया कितना भारी होता है।

यह इंसान को ज़िंदा रहते हुए भी अधूरा कर देता है।


अगले दिनों में आरव का हाल फिर से बदलने लगा।

कॉलेज वही था, क्लास वही थी, मगर आस्था के बिना सब खाली-खाली लगता।

उसकी हंसी, उसकी बातें, उसका साथ—सब उसकी यादों में बसकर उसे सताने लगे।


रात को जब भी वह अपनी डायरी खोलता, तो बस यही लिखता—

“आस्था, तुम्हारी जुदाई मेरी सांसों पर बोझ बन गई है।

तुम दूर हो, मगर तुम्हारी यादें हर पल मेरे पास हैं।

क्या मोहब्बत हमेशा जुदाई के साये में ही जीती है?”


आरव जानता था कि आस्था ने उसे कभी धोखा नहीं दिया।

मगर जुदाई भी किसी धोखे से कम नहीं होती।

यह दिल को उतना ही तोड़ती है, जितना बेवफाई।



अध्याय 14 : खामोश ख़त

दिल्ली चले जाने के बाद आस्था और आरव की मुलाकातें नामुमकिन हो गईं।

फोन पर बातें होतीं, मगर दोनों को लगता कि यह काफी नहीं है।

उनके दिलों में जो बातें छुपी थीं, वे आवाज़ों में पूरी नहीं हो पाती थीं।


एक दिन आस्था ने आरव को एक ख़त भेजा।

साधारण-सा लिफ़ाफ़ा, मगर उसमें छिपे शब्द किसी मरहम से कम नहीं थे।


उसने लिखा था—


“आरव,

जब भी मैं अकेली होती हूँ, तुम्हारी आँखें याद आती हैं।

तुम्हारी चुप्पी, तुम्हारी बातें, सब मेरी धड़कनों में गूंजते हैं।

यह दूरी शायद हमारी मोहब्बत की परीक्षा है।

मुझे यकीन है कि हम इसे जीतेंगे।”


ख़त पढ़कर आरव की आँखें नम हो गईं।

वह मुस्कुराया भी और रोया भी।


उसने भी जवाब में एक ख़त लिखा—


“आस्था,

तुम्हारे बिना हर लम्हा अधूरा है।

मगर तुम्हारे ख़त ने मेरी तन्हाई को साथी दे दिया है।

अब जब भी मैं उदास होता हूँ, तुम्हारे शब्द मुझे संभाल लेते हैं।

शायद यही सच्ची मोहब्बत है—जब इंसान की रूह कागज़ पर उतरकर भी जुड़ी रहती है।”


धीरे-धीरे यह सिलसिला बढ़ने लगा।

हर हफ्ते एक नया ख़त आता और जाता।

दोनों अपने दिल की सारी बातें इन चिट्ठियों में कह देते—वो बातें जो फोन पर कहने की हिम्मत नहीं होती।


कभी आस्था अपनी नई जिंदगी के किस्से सुनाती, तो कभी आरव अपने सपनों और संघर्षों का हाल लिखता।

इन ख़तों ने उनकी दूरी को थोड़ा आसान बना दिया।


मगर हर ख़त के आखिर में दोनों का डर झलकता—

“क्या हमारी मोहब्बत वाकई मंज़िल तक पहुँचेगी?

या फिर यह दूरी ही हमारी कहानी का आखिरी सच होगी?”


आरव ने अपनी डायरी में लिखा—

“ये खामोश ख़त ही अब मेरी ज़िंदगी हैं।

इनमें आस्था की खुशबू है, उसकी मौजूदगी है।

शायद यही कागज़ मेरी धड़कनों को ज़िंदा रखे हुए हैं।”


अध्याय 15 : मुलाक़ात का वादा

ख़तों का सिलसिला महीनों तक चलता रहा।

हर चिट्ठी के साथ उनके दिल और करीब आते गए, मगर जिस्म की दूरी उन्हें बार-बार चुभती रही।

आरव की सबसे बड़ी चाहत अब सिर्फ एक थी—आस्था को फिर से देखना।


एक दिन आस्था ने अपने ख़त में लिखा—


“आरव,

मैं जानती हूँ कि हमारी जुदाई ने तुम्हें तोड़ा है, मगर मुझ पर भी इसका असर कम नहीं हुआ।

हर सुबह जब मैं उठती हूँ, तो सबसे पहले तुम्हारी याद आती है।

अब और इंतज़ार नहीं होता।

क्या हम मिल सकते हैं? बस एक बार…”


यह पढ़कर आरव का दिल धड़क उठा।

उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि आस्था ने वही कहा, जिसकी ख्वाहिश वह रोज़ करता था।


आरव ने तुरंत जवाब लिखा—


“आस्था,

तुम्हारे बिना ये शहर वीरान है।

अगर तुम मिलने आओगी, तो शायद मेरा दिल फिर से मुस्कुरा सकेगा।

मैं वादा करता हूँ, यह मुलाक़ात हमेशा यादगार होगी।”


कुछ ही दिनों बाद तय हुआ कि आस्था छुट्टियों में अपने पुराने शहर आएगी।

यह खबर सुनकर आरव की दुनिया जैसे बदल गई।

उसकी धड़कनें तेज़ हो गईं, दिल में एक नई उमंग जागी।


अमन ने मज़ाक करते हुए कहा—

“लगता है भाई, तेरे चेहरे पर फिर से वही चमक लौट आई है। कहीं ये आस्था की वजह तो नहीं?”


आरव मुस्कुराया,

“हाँ अमन, इस बार किस्मत ने मुझे इंतज़ार का तोहफ़ा दिया है। अब देखना है कि यह वादा सच में पूरा होता है या नहीं।”


उस रात आरव ने अपनी डायरी में लिखा—

“ज़िंदगी ने मुझे बहुत दर्द दिए हैं, मगर अब यह मुलाक़ात का वादा मेरी सबसे बड़ी उम्मीद है।

शायद यह मुलाक़ात मेरी मोहब्बत को अधूरी से पूरी बना दे।”



अध्याय 16 : वापसी

छुट्टियों का समय आया और आस्था अपने परिवार के साथ पुराने शहर लौट आई।

स्टेशन पर जब ट्रेन से उतरी, तो आरव का दिल जैसे सीने से बाहर आना चाहता था।

कितने ही महीनों के बाद वह उसे देखने वाला था—वह चेहरा, जिसने उसकी तन्हाई को रोशनी दी थी।


आस्था जब भीड़ के बीच से बाहर आई, तो आरव ने उसे देखते ही ठहर-सा गया।

वह पहले जैसी ही लग रही थी, मगर आँखों में अब और गहराई थी—जैसे दूरी ने उसे और परिपक्व बना दिया हो।


दोनों की नज़रें मिलीं।

कुछ पल तक कोई कुछ नहीं बोला।

फिर आस्था ने हल्की मुस्कान दी और कहा—

“कैसे हो, आरव?”


आरव की आँखों में नमी थी।

उसने बस इतना कहा—

“अब अच्छा हूँ… क्योंकि तुम सामने हो।”


उस दिन दोनों घंटों तक साथ रहे।

कभी शहर की गलियों में घूमते, तो कभी वही पुरानी लाइब्रेरी में बैठते, जहाँ से उनकी दोस्ती शुरू हुई थी।

हर जगह यादों की खुशबू बिखरी हुई थी।


आस्था ने कहा,

“जानते हो, जब मैं दिल्ली में थी, तो यही गलियाँ, यही जगहें मुझे सबसे ज़्यादा याद आती थीं। लगता था जैसे मेरी आधी ज़िंदगी यहीं छूट गई हो।”


आरव ने धीमी आवाज़ में जवाब दिया,

“हाँ आस्था, तुम्हारे बिना ये जगहें भी वीरान हो गई थीं। अब तुम लौट आई हो, तो लगता है शहर ने फिर से सांस लेना शुरू किया है।”


शाम को दोनों छत पर बैठे आसमान देख रहे थे।

आस्था ने धीरे से कहा,

“आरव, यह मुलाक़ात छोटी है… मगर इसका वादा बड़ा है।

अगर हमने दूरी सह ली है, तो मुझे यकीन है कि हम हर मुश्किल सह सकते हैं।”


आरव ने उसकी तरफ़ देखते हुए कहा,

“हाँ आस्था, इस बार किस्मत चाहे जैसी परीक्षा ले, मैं हार नहीं मानूँगा। तुम मेरी सबसे बड़ी ताकत हो।”


उस रात आरव ने अपनी डायरी में लिखा—

“यह वापसी सिर्फ आस्था की नहीं थी… बल्कि मेरी रूह की थी।

जैसे मैं फिर से पूरा हो गया हूँ।”





अध्याय 17 : इज़हार

आस्था के लौट आने से आरव की ज़िंदगी फिर से रंगीन हो गई थी।

वह जानता था कि यह छुट्टियाँ कुछ ही दिनों की हैं, और उसके बाद आस्था को वापस जाना होगा।

इसलिए उसने ठान लिया कि इस बार वह अपने दिल की बात ज़रूर कहेगा।


एक शाम दोनों पुराने मंदिर के पास बने तालाब के किनारे बैठे थे।

हवा ठंडी थी, आसमान पर ढलता सूरज लालिमा फैला रहा था।

आरव बार-बार कुछ कहने की कोशिश करता, मगर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।


आस्था ने उसकी बेचैनी भांप ली।

वह मुस्कुराई और बोली,

“क्या सोच रहे हो? आज तुम बहुत चुप हो।”


आरव ने गहरी सांस ली।

उसकी आँखें आस्था की आँखों से मिलीं।

फिर उसने धीरे-धीरे कहा—


“आस्था… मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता।

तुम मेरी तन्हाई की दवा हो, मेरी उम्मीद हो, मेरी ज़िंदगी हो।

मुझे नहीं पता यह मोहब्बत है या इससे भी कुछ गहरा…

पर इतना जानता हूँ कि तुम्हारे बिना मेरी दुनिया अधूरी है।

आस्था, क्या तुम… हमेशा मेरी रहोगी?”


कुछ पल की खामोशी छा गई।

हवा थम-सी गई।

आस्था की आँखों में आँसू चमक रहे थे।


उसने कांपती आवाज़ में जवाब दिया—

“आरव, तुमने जो कहा, वही मैं कबसे महसूस कर रही थी।

तुम सिर्फ मेरे साथी नहीं हो, तुम मेरी आस्था हो।

अगर मोहब्बत का मतलब किसी के बिना अधूरा होना है… तो हाँ, मैं तुमसे मोहब्बत करती हूँ।”


दोनों की आँखें नम थीं, मगर दिल मुस्कुरा रहे थे।

आरव ने महसूस किया कि उसके सारे ज़ख्म उस पल भर गए।

सना की बेवफाई, तन्हाई के अंधेरे, जुदाई का दर्द—सब धुल गया।


उस रात आरव ने अपनी डायरी में लिखा—

“आज मैंने अपनी मोहब्बत का इज़हार किया।

और उसने मुझे अपनाकर यह यकीन दिलाया कि दर्द का रंग चाहे कितना भी गहरा हो,

मोहब्बत का रंग हमेशा जीत जाता है।”


👉 यह था अध्याय 17 – "इज़हार"।



अध्याय 18 : नया सपना

इज़हार के बाद आरव और आस्था के बीच सबकुछ बदल गया था।

अब उनकी बातें सिर्फ़ यादों तक सीमित नहीं थीं, बल्कि आने वाले कल की योजनाओं तक पहुँच गई थीं।


एक दिन वे दोनों पार्क में बैठे थे।

बच्चे खेल रहे थे, दूर पेड़ों से पत्ते झर रहे थे।

आस्था ने मुस्कुराते हुए कहा,

“जानते हो आरव, मैं अक्सर सोचती हूँ कि हमारा घर कैसा होगा।”


आरव ने हंसते हुए जवाब दिया,

“तुम सोचो, और मैं सुनूँगा।”


आस्था ने आँखें बंद कीं और बोली—

“एक छोटा-सा घर… जिसमें बहुत सारी किताबें होंगी।

खिड़कियों से धूप आएगी, और दीवारों पर तुम्हारी लिखी कविताएँ होंगी।

मैं सुबह तुम्हारे लिए चाय बनाऊँगी, और तुम मुझे अपनी नई कहानी सुनाओगे।”


आरव उसकी कल्पना में खो गया।

उसने कहा—

“और हमारे घर की छत पर मैं एक बगीचा बनाऊँगा।

जहाँ हर मौसम में फूल खिलेंगे, और हम वहीं बैठकर शाम की हवा का मज़ा लेंगे।

तुम्हारी हँसी वहाँ सबसे खूबसूरत फूल होगी।”


दोनों ने मिलकर बहुत से सपने बुने—

साथ में सफ़र करने के, साथ में कामयाबी पाने के, और साथ में बूढ़े होने के।


आस्था ने धीरे से कहा,

“आरव, ज़िंदगी आसान नहीं होगी।

हो सकता है रास्ते में मुश्किलें आएं, लोग हमारे रिश्ते को समझें या न समझें।

लेकिन अगर तुम साथ हो, तो मुझे किसी भी मुश्किल से डर नहीं लगेगा।”


आरव ने उसका हाथ थामकर कहा,

“आस्था, यह सपना सिर्फ़ तुम्हारा नहीं, हमारा है।

और मैं वादा करता हूँ, चाहे कितनी भी आँधियाँ आएं, मैं तुम्हारा हाथ कभी नहीं छोड़ूँगा।”


उस रात आरव ने डायरी में लिखा—

“आज हमने अपना नया सपना बुना।

यह सपना सिर्फ़ एक घर का नहीं है, बल्कि उस मोहब्बत का है जिसने दर्द के रंगों को उम्मीद के रंग में बदल दिया।”



अध्याय 19 : परीक्षा

आरव और आस्था ने मिलकर भविष्य के सपने तो देख लिए थे,

लेकिन ज़िंदगी ने जैसे ठान लिया था कि उनकी मोहब्बत को आसान नहीं बनने देगी।


छुट्टियों का समय ख़त्म हुआ और आस्था को वापस दिल्ली जाना पड़ा।

इस बार विदाई पहले से भी भारी थी, क्योंकि अब दोनों एक-दूसरे से अपने दिल का इज़हार कर चुके थे।


स्टेशन पर खड़े-खड़े आस्था ने कहा—

“आरव, दूरी हमें कमजोर नहीं बनाएगी… बल्कि और मज़बूत करेगी।

बस तुम अपने सपनों को मत छोड़ना।”


आरव ने जबरन मुस्कुराते हुए कहा—

“और तुम अपना ख्याल रखना।

तुम्हारी हर धड़कन अब मेरी जिम्मेदारी है।”


ट्रेन चली गई।

और आरव की आँखों में फिर वही अधूरापन लौट आया।


दिन बीतते गए।

फोन कॉल्स और मैसेज ही उनका सहारा थे।

लेकिन दूरियाँ कभी-कभी शक और डर भी पैदा कर देती थीं।


एक दिन आस्था का फोन लंबे समय तक नहीं आया।

आरव बेचैन हो गया।

उसने कई बार कॉल किया, मगर जवाब नहीं मिला।

मन में अजीब-अजीब खयाल आने लगे।


रात को अचानक फोन आया।

आस्था की आवाज़ थकी हुई थी।

उसने कहा—

“आरव, आज कॉलेज में मेरा प्रेजेंटेशन था… इतनी भागदौड़ हुई कि फोन ही नहीं उठा सकी।

मुझे पता है तुम परेशान हो गए होगे, लेकिन प्लीज़ भरोसा रखना।”


आरव चुप रहा।

उसकी खामोशी में दर्द था।

आस्था ने धीरे से कहा—

“यह हमारी परीक्षा है, आरव।

अगर हम इस दूरी, इस डर और इस बेचैनी को सह लेंगे, तो कोई हमें अलग नहीं कर पाएगा।”


आरव ने गहरी सांस लेते हुए कहा—

“हाँ आस्था, मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूँ,

लेकिन इस अधूरेपन को मैं मोहब्बत की ताकत बना दूँगा।

कसम है तुम्हारी, अब कभी शक या शिकायत नहीं करूँगा।”


उस रात डायरी में लिखा गया—

“मोहब्बत आसान नहीं होती।

हर दिन एक परीक्षा होती है।

और हमने आज वादा किया कि इस इम्तहान में हम हमेशा पास होंगे।”





अध्याय 20 : फैसला

कई महीनों की दूरी और परीक्षाओं के बाद, आरव और आस्था ने तय किया कि अब सिर्फ़ वादों और ख़तों पर भरोसा नहीं करना चाहिए।

वे अपनी मोहब्बत को असली जिंदगी में जीने का फैसला कर चुके थे।


एक शाम आरव ने आस्था से वीडियो कॉल पर कहा—

“आस्था, अब इंतज़ार का समय खत्म हो गया। मैं चाहता हूँ कि हम अपने रिश्ते को नई शुरुआत दें।

हमारे सपनों का घर, हमारा साथ… सब कुछ अब सिर्फ़ कागज़ों या ख्वाबों तक नहीं रह सकता।”


आस्था की आँखों में चमक थी।

वह बोली—

“आरव, मैं भी यही चाहती हूँ। अब और इंतज़ार नहीं। हमें मिलकर अपने भविष्य की नींव खुद रखनी होगी।”


फैसला हुआ कि आस्था कुछ महीनों में स्थायी रूप से शहर लौट आएगी।

दोनों ने मिलकर अपने परिवारों से भी बात की।

आरव के माता-पिता ने खुशी-खुशी उसका समर्थन किया, और आस्था के माता-पिता ने भी इसे स्वीकार कर लिया।


इस बीच, दोनों ने अपने सपनों पर काम जारी रखा—

आरव ने अपनी पढ़ाई पूरी की,

आस्था ने समाजसेवा और करियर को संतुलित किया।

लेकिन अब दोनों की ज़िंदगी में मोहब्बत और साझेदारी का रंग था।


आरव ने अपनी डायरी में लिखा—

“आज हमने फैसला किया।

हमारा रिश्ता अब सिर्फ़ ख्यालों और ख़तों तक सीमित नहीं रहेगा।

हमने तय किया है कि दर्द, दूरी और परीक्षाएँ हमारी मोहब्बत को तोड़ नहीं पाएंगी।

अब हम मिलकर अपने सपनों को हकीकत में बदलेंगे।”


रात को दोनों छत पर बैठे तारों को देखते रहे।

आरव ने धीरे से कहा—

“आस्था, अब मेरी दुनिया पूरी है।”


आस्था ने मुस्कुराकर कहा—

“आरव, हमारी मोहब्बत ने सब कुछ जीता… और अब हम अपने नए सफ़र की शुरुआत करेंगे।”


👉 यह था अध्याय 20 – "फैसला"।


अगर आप चाहेंगे, मैं अब कहानी को अंतिम अध्याय – "सपनों का सच" में समाप्त कर सकता हूँ, जहाँ आरव और आस्था अपने नए जीवन की शुरुआत करेंगे और पूरी कहानी का समापन होगा।



अध्याय 21 : सपनों का सच

कई महीनों की दूरी, परीक्षाओं और ख़तों के बाद, अब आरव और आस्था की मोहब्बत को वास्तविक रूप में जीने का समय आ गया था।

दोनों ने मिलकर अपने नए घर और जीवन की योजना बनाई।


आरव ने अपने पुराने शहर में एक छोटा-सा घर लिया।

घर की दीवारों पर किताबों की अलमारी, और छत पर फूलों की बगिया थी—जैसा उन्होंने हमेशा सपना देखा था।

आस्था ने अपने घर के कुछ हिस्सों को सजाने और बच्चों के लिए एक पढ़ाई का कोना बनाने की योजना बनाई।


जब आस्था घर आई, तो आरव ने उसके लिए एक छोटा सा स्वागत तैयार किया था।

फूलों की खुशबू, हल्की रोशनी, और उनके सपनों की छोटी-छोटी चीज़ें—सब कुछ उनके प्यार और मेहनत का प्रतीक था।


दोनों ने एक-दूसरे का हाथ थामते हुए कहा—

“यह सिर्फ़ घर नहीं है… यह हमारी मोहब्बत और संघर्ष का प्रतीक है।

हमने दर्द, तन्हाई और जुदाई सहकर इसे पाया है।

अब यह हमारा सपनों का सच है।”


आरव और आस्था ने मिलकर अपने जीवन की नई शुरुआत की।

वे हर दिन एक-दूसरे के साथ बिताते, सपने बनाते और उन्हें हकीकत में बदलते।

दूरियों और कठिनाइयों ने उन्हें मजबूत बनाया था, और अब उनका रिश्ता केवल प्यार नहीं, बल्कि विश्वास, समझदारी और साथ का प्रतीक बन चुका था।


आरव ने अपनी डायरी में अंतिम पन्ने पर लिखा—

“आज मैं पूरी तरह समझ गया हूँ कि दर्द के रंग भी ज़िंदगी में ज़रूरी हैं।

क्योंकि यही रंग हमें सिखाते हैं, परखते हैं और तैयार करते हैं।

और जब हम उस दर्द को पार कर लेते हैं, तो हमें अपना सपनों का सच मिलता है।


आस्था, तुम मेरी जिंदगी की सबसे खूबसूरत कहानी हो।

और अब यह कहानी हमेशा के लिए हमारी है।”


🌟 समाप्त 🌟

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