वक्त लगता है वक्त लगता है पुरानी दरख़्त हिलाने में वक्त लगता है सरल उबर के आने में वक्त लगता है ! खिलता नहीं है कमल गुलशन में कभी कांटो से साथ निभाने में वक्त लगता है! किनारों पर खड़ी हुई है कश्तियां कई, उजड़ने की कगार पर है बस्तियां कई, मुफलिसी में दबी पड़ी है हस्तियां कई बंजर में फूल खिलाने में वक्त लगता है! घर से निकलता है हर कोई स्वप्न ले कर किनारा करके आने में वक्त लगता है ! अनुकूल हो हालात चल लेता है हर कोई फौलादी जिगरा बनाने में वक्त लगता है! बहाकर ले जाती हैं लाशों को यह लहरें लहरों के विरुद्ध जाने में वक्त लगता है शहद मुंह से बिखेर देता है हर कोई , दिल में जगह बनाने में वक्त लगता है ! पुरानी दरख़्त हिलाने में वक्त लगता है सरल उबर के आने में वक्त लगता है!! ✍कवि दीपक सरल
करके तो कुछ दिखला ना आना जाना आना जाना , करके तो कुछ दिखला ना संघर्षों के सागर में अब अपना परचम लहरा ना ! कई हार ‘हार के’ पहन भले जीत के अब है दिखलाना , कोई कितना भी रोके तुम्हें हार के आगे टिकना ना ! तुम वीर शिवा के वंशज हो रणभूमि – डर से रुकना ना फौलादी हो जिगरा ऐसा दुश्मन के आगे झुकना ना ! कुछ पल का है यह जीवन रे इस जीवन में कुछ कर जाना , कई सदियों से आना जाना जीवन यू ना व्यर्थ गंवाना ! कोई सदा धरा पर अमर नहीं कितना भी हो वह बलशाली, वो ही निज जग में अमर रहे कर गए जो यहाँ सदाचारी ! नित ज्ञान पथ पर चलता जा तू अंधकार से लड़ता जा , भर – अंतर्मन में ज्वाला ऐसी कहीं एक जगह पर टिकना ना ! लाख – चौरासी जन्म लिए तब निज मानुस देह पाई है, कुछ ऐसा करके जाना रे . इतिहास धरा का बदलता जा !! आना जाना आना जाना , करके तो कुछ दिखला ना संघर्षों के सागर में अब अपना परचम लहरा ना ! ✍कवि दीपक सरल
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