भीगे भीगे मौसम में भीगे भीगे मौसम में ….. कुछ मस्त बहारें आती है ! कुछ याद बसर करती है कुछ अजब नजारे लाती हैं ! ! जब बादल गर्जन करता है कोयल भी राग सुनाती है ! कभी गीत प्रकृति गाती है , मन को हर्षिल कर जाती है!! जब ऐसा आलम होता है मोर – पंख बिखराता है ! कलियां खिल खिल उठती है, जब तितली भी मडराती है !! कुछ मधुकर से गीतों से मन हर्षिल हो जाता है ! नदियां उमंग उफान में , नृत्य अजब दिखाती है !! उगती सूखी फसल को जल भर भर दे जाती है ! अन्न के उस दाता का , ईश्वर से मेल कराती है !! जो सत्य पथ से भटक गए गर्जना उसको सुनाती है ! जो सत्य पथ पर अडिग रहे अमृत – वर्षा कहलाती है !! वर्षों के बिछड़े आशिक को प्रियवर की याद दिलाती है ! मन को ऐसे महकाती है , जो याद याद बन जाती है !! भीगे भीगे मौसम में…. कुछ मस्त बहारें आती है ! कुछ याद बसर करती है , कुछ अजब नजारे लाती हैं !! ✍कवि दीपक सरल
करके तो कुछ दिखला ना आना जाना आना जाना , करके तो कुछ दिखला ना संघर्षों के सागर में अब अपना परचम लहरा ना ! कई हार ‘हार के’ पहन भले जीत के अब है दिखलाना , कोई कितना भी रोके तुम्हें हार के आगे टिकना ना ! तुम वीर शिवा के वंशज हो रणभूमि – डर से रुकना ना फौलादी हो जिगरा ऐसा दुश्मन के आगे झुकना ना ! कुछ पल का है यह जीवन रे इस जीवन में कुछ कर जाना , कई सदियों से आना जाना जीवन यू ना व्यर्थ गंवाना ! कोई सदा धरा पर अमर नहीं कितना भी हो वह बलशाली, वो ही निज जग में अमर रहे कर गए जो यहाँ सदाचारी ! नित ज्ञान पथ पर चलता जा तू अंधकार से लड़ता जा , भर – अंतर्मन में ज्वाला ऐसी कहीं एक जगह पर टिकना ना ! लाख – चौरासी जन्म लिए तब निज मानुस देह पाई है, कुछ ऐसा करके जाना रे . इतिहास धरा का बदलता जा !! आना जाना आना जाना , करके तो कुछ दिखला ना संघर्षों के सागर में अब अपना परचम लहरा ना ! ✍कवि दीपक सरल
हौसला जिद पर अड़ा है हौसला जिद पर अड़ा है लौटना तोहीन होगी नदियां निकल गई है समुंदर से बेवफाई क्यों ।।१ जिस गली जाना नहीं है वहां से रुक मोड़ लो छोड़ आए गलियां जो वहां फिर आवाजाही क्यों।।२ मोहब्बत में चुन लिया जिसको अपना नगमा तो फिर बार-बार उससे इस तरह यू रुसवाई क्यों।।३ घुस बैठे हैं तुम इस कदर फूलों के बगीचे में तो तुम फूलों को लीजिए कांटो से सरखपाई क्यों ।।४ जुगनू अकेला निकल बैठा है सूरज के सामने यह जुगनू की खुद्दारी है उससे गद्दारी क्यों।।५ मसीहा जिसको मानकर मंजिलों तक आ गए मीलों चल करके इस तरह हाथ छुड़ाई क्यों।।६ मिले हो तो नयन के समुंदर से नैनो को मिलाइए अगर इश्क नहीं है तो इस तरह नजर चुराई क्यों।।७ तुम अपना घर रोशन करो अपना दिया जलाइए खुद जुगनू होकर भी चिरागों से रोशनाई क्यों।।८ राहत-ए- मुफलिसी का अब हर जगह जिक्र है देखता खुदा है तो फिर इस तरह प्रदर्शनाई क्यों।।९ पीठ पीछे एक दूसरे के यूं चलाने लगे हैं वह छुरियां सामने आते ही फिर इस तरह भाई भाई क्यों।।१० ✍कवि दीपक सरल
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