कवि दीपक सरल

 

निभाना ना निभाना उसकी मर्जी

साथ सात जन्म का
यह है मेरी अर्जी ,
निभाना ना निभाना
अब है उसकी मर्जी !

थोड़ी सी है खुशी
थोड़ा सा है गम ,
कितने अजब है
तुम और हम !!

कुछ भी गलती हो
माफी का सहारा,
रिश्ता बना रहे अब
तुम्हारा और हमारा !

छोटी-छोटी बातों पर
उसका यूं रूठ जाना ,
अच्छा लगता है मुझे
फिर फिर उसे मनाना !

कुछ तो मिले उसको
हंसाने का अब बहाना ,
इसलिए करना पड़ता
थोड़ा थोड़ा बचकाना !!

अजब उसकी मुस्कान
अजब उसका इतराना
घायल कर ये जाता है
उसका आंख चुराना !!

✍कवि दीपक सरल

Comments

Popular posts from this blog

भीगे भीगे मौसम में - कवि दीपक सरल

करके तो कुछ दिखला ना

हौसला जिद पर अड़ा है