कवि दीपक सरल की नई रचना -कई सूर्य अस्त हो जाते हैं

 

कई सूर्य अस्त हो जाते हैं

कई सूर्य अस्त हो जाते हैं ,
जब भोर निशा बन जाती है !

निशा से लड़ करके ही तो
भोर सुबह – दिखलाती है !!

संघर्ष – भरी यह जीत है ,
हर शख्स को आजमाती है!

कुछ मार्ग में रह जाते हैं ,
कुछ को पार लगाती है !!

यह जीत इतनी सहज कहा ,
कई हार ‘हार के’ पहनाती है !

जो जिद पर अडियल रहता है
उसको ये शिखर दिलाती है !!

✍कवि दीपक सरल

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